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समाज का इतिहास

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जाति एवं बारी जाति का संक्षिप्त परिचय

विश्व में भारत ही एक मात्र देश है जहाॅ जाति व्यवस्था है। भारतीय समाज में जाति जिसमें वर्ण व्यवस्था शामिल है की उत्पति प्राचीन काल से रही है और यह धीरे-धीरे विकसित हुई है। भारत में जातियों के इतिहास का कोई प्रमाणिक साक्ष्य प्राप्त नहीं होता है। ऐसा माना जाता है कि ब्राम्हण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र वर्ण व्यवस्था के अनुसार वह लोग थे जो पूजा पाठ एवं वेदों का ज्ञान रखतें थे वह ब्राम्हण कहा जाता था, वह लोग जो लोगों देश धर्म के साथ लोगों की रक्षा करते थ,े वह लोग क्षत्रिय वर्ण के धन और व्यपार आदि का कार्य कर पूरी व्यवस्था में आर्थिक रुप से कार्य करने वाले लोगों को वैश्य यानि व्यपारी वर्ण में रखा गया इसके अतिरिक्त वह लोग लोग जो उपरोक्त तीनों वर्ण के कार्यो से अलग थे उन्हें शूद्र वर्ण का कहा जाता था। इसका विकास शुरुवात में मनुस्मृति और ऋगवेद जैसे धर्मग्रन्थों के आधार पर किया गया था। जाति प्रथा अथवा जाति व्यवस्था हिन्दू समाज की एक प्रमुख बुराई है यह कब और कैसे शूरु हुई इस पर अत्यन्त मतभेद है। इस विषय पर अनेको मत है एक मत के अनुसार पारिवारिक व्यवसाय से जाति को उत्पन्न माना गया है तो साम्प्रादायिक मत के अनुसार जब विभिन्न सम्प्रदाय संगठित होकर अपनी अलग जाति का निर्माण करता है जो उससे जाति प्रथा की उत्पत्ति कहते है। भारत में धर्म और जाति की समाजिक श्रेणियां ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के दौरान प्रचलन में भी था। लेकिन 19वीं शताब्दी के अन्त तक धर्म के आधार पर इन जातियों को जनगणना की मद्द से चिन्हित किया गया और मान्यता दिया गया। पी0 ए0 सोरोकिन ने अपनी पुस्तक शोसल मोबिलिटी में लिखा है कि मानव जाति के इतिहास में बिना किसी स्तर के विभाजन करना उसमें रहने वाले सदस्यों की समानता एक कल्पना मात्र है वही सी0 एच0 फूले का कथन है कि वर्ग विभेद वंशानुगत होता है तो उसे जाति कहते है। आधुनिक भारत में जातियों के आरक्षण व्यवस्था जिसमें जनरल, ओ0बी0सी0, एस0सी0 और एस0टी0 का उपयोग किया जाता है जो भारत के संविधान द्वारा निर्धारित है और यह समाजिक न्याय सुनिश्चित करने के लिए बनायी गयी है यदि हम देखें तो जाति व्यवस्था किसी एक निश्चित व्यक्ति या काल की देन नहीं है अपितु इसका क्रमिक विकास हुवा है और यह कोई विश्व-व्यापी शाश्वत व्यवस्था नहीं है और न ही इसका कोई वैज्ञानिक आधार है।

भारत में अन्य जातियों की भांति बारी जाति के विकास का भी क्रम बद्व रुप प्राप्त नहीं होता है पौराणिक ग्रन्थों के अनुसार बारी जाति का नामकरण संस्कृत के शब्द वारि से लिया गया हैै जिसका अर्थ पानी होता है जिस प्रकार पानी अपनी पवित्रा एवं गुण जिस रंग और मिश्रण में मिलाया जाता है उसी का रुप ले लेता है उसी प्रकार बारी जाति भी अपने इसी गुण और पवित्रा के लिए जाना जाता है। पौराणिक कथाओं के अनुसार ऐसा कहा जाता है कि बारी जाति को सारस्वत पण्डित के रुप में भगवान श्री राम के समय से जाना जाता था जो उनके लिए भोजन बनाया करते थे, लेकिन इसके कोई प्रमाणिक साक्ष्य नहीं मिलते है। वर्तमान में जातियों के बदलते वर्ण व्यवस्था के बदले स्वरुप के अनुसार ब्राहम्ण, क्षत्रिय, वैश्य को जनरल, तथा शूद्र को ओ0बी0सी0 और एस0सी0 एवं एस0टी0 में रखने के लिए कोई विशिष्ट कमेटी नहीं है फिर भी भारतीय संविधान के अन्तर्गत उपरोक्त व्यवस्था के अन्तर्गत जातियों को उनके वर्ण व्यवस्था के अनुसार जनरल, ओ0बी0सी0 तथा एस0सी0 और एस0टी0 में रखा गया है।

बारी जाति भारत सरकार के आरक्षण व्यवस्था के अन्तर्गत सरकार के असाधारण गजट 12011ध्68ध्93.ठब्ब्;ब्द्ध कजण् 10ध्09ध्1993 के अन्तर्गत ओ0बी0सी0 की सूची में 32 क्रम में अंकित है। समय के साथ बदलते सामाजिक परिवेश में बारी जाति के लोगों का समाजिक परिवेश भी बदला और उसी बदलते समाजिक परिवेश में बारी जाति एक लडाकू जाति बन गयी और यह जाति खास कर राजपूतों के साथ रही है जिसमें खास कर सिसोदिया राजपूत के साथ बारी समाज के का होना अत्याधिक प्रमाणिकता से मिलता है।

भारत के मध्य युग में बारी जाति के लोग राजपूत जाति के रुप में भी जाने जाते थे। राजपूत बारी समाज का इतिहास युद्व के मैदान से लेकर राजाओं के परिवार के रुप में एक विश्वासनीय एवं वीर योद्वा तथा अपने स्वामी के लिए अपने प्राणों को न्यौक्षावर कर देने वाला समाज रहा है। यह समाज स्वामी भक्ति, सेवा, विश्वास और अपनी इमानदारी के लिए जाना जाने वाला समाज रहा है इस समाज में अनेकों वीरों ने जन्म लिया भले ही अपने सीधे पन और स्वामी भक्त होने के कारण इतिहास के पन्नों में इस समाज को इतिहासकारों द्वारा कोई विशेष महत्व नहीं दिया हो लेकिन अगर हम भारत के इतिहास पर नजर डाले तो पाते है कि आज के आधुनिक भारत के निर्माण में इस समाज का भी एक विशेष योगदान रहा है। जिस प्रकार चित्तौड के राजकुमार उदय सिंह के प्राणों की रक्षा के लिए माॅ पन्ना धाय ने अपने पुत्र चंदन का बलिदान दिया था तो उसी माॅ की योजना को सफल बनाने के लिए समाज के पूर्वज वीर कीरत बारी ने राजकुमार कुवॅर उदय सिंह को दुष्ट बनवीर से बचाकर महल के बाहर पहुॅचाया और राज्य तथा अपने मालिक के प्रति अपनी वफादारी को सिद्ध किया है।

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डा0 राम कुमार वर्मा की प्रसिद्व एकांकी दीप दान में वीर कीरत बारी द्वारा कुॅवर को जुठे पत्तलों के बीच छुपाकर महल के बाहर ले जाने की बात कही गयी है इससे यह सिद्व नहीं होता है कि यह समाज जुठे पत्तल उठाने का कार्य करता है यह भी हो सकता है कि माॅ पन्ना धाय के कार्य को पूरा करने के लिए एवं समय की माॅग के साथ कीरत बारी ने जुठे पत्तल उठाने वाले का भेष बनाकर अन्जाम दिया हो। अगर हम वीर कीरत बारी के कार्य को देखे तो यह भी पाते है कि इतना महत्वपूर्ण कार्य किसी वीर और विश्वासनीय व्यक्ति को ही दिया जा सकता था जहाॅ हर मोड पर जान और मारे जाने का खतरा मंडरा रहा हो कोई वीर पुरुष ही इस प्रकार का कार्य कर सकता है। वीरता की गौरव गाथा में इस समाज के कीरत बारी जैसे महापुरुष के साथ कई बीरों ने जन्म लिया है इन्हीं मंे से एक वीर योद्धा वीर शिरोमणि रुपन बारी भी रहे है जिनकी वीरता के चर्चे कम नहीं रहे है। आल्हा उद्वल की सेना के प्रसिद्व सेना नायकों में बारी जाति के वीर रुपन बारी का प्रमुख स्थान रहा है। प्रसिद्व लोकगीत आल्हा में वीर रुपन बारी की वीरता का बार-बार जिक्र किया गया है। गत मध्यकालीन भारत में यह समाज सिसोदिया समाज के महाराणा प्रताप के राज्य और उनके साथ अत्याधिक घुले मिले होने के कारण बारी समाज के लोगों को मुगल काल में महाराणा प्रताप और मुगलों के मध्य अनेकों लडाइों और उस दौर में होने वाले परिवर्तन तथा समाज के बदलते परिवेश के कारण बारी जाति के लोगों के साथ बहुत अत्याचार हुआ था। जिस कारण इस समाज के लोगों ने अपने जीवन की रक्षा के लिए बहुत समय तक जंगलों के आस-पास रह कर अपना जीवन बिताना पडा समय के साथ बारी समाज के लोगों में आर्थिक पिछडे पन एवं कुशल नेत्रत्व न मिल पाने के कारण समाज के बहुताय लोगों ने अपने जीवन रक्षा के लिए अपने को अनेको उपनाम में परिवर्तन कर लिए जिस कारण यह समाज गुमनामी की तरफ चला गया जो जिस स्थान पर बसा उसी स्थान के अनुसार अपनी जीविका को चलाने के कार्य का चुनाव कर लिया जैसे उत्तर पूर्वी भारत के भाग में निवास करने वाले लोगों ने अपनी जीविका के लिए जगंलों से पत्ते लाकर पत्तल बनाने का कार्य करने लगे और पत्तलों को बेचकर उसी से अपना भारण पोष्ण करते थे। महाराष्ट्र के लोगों ने साग सब्जी के साथ पान की खेती का कार्य प्रमुखता से करने लगे और उसी क्षेत्र की भाषा के अनुसार अपने उपनाम से जाने लगे जैस उत्तर पूर्व एवं मध्य भारत में बारी जाति के लोगों को बारी, रावत, चैहान, सिंह, वर्मा, आजाद, आर्य, शर्मा, विद्यार्थी, राणा, सातपुते, कुमरावत, बन्दे, गुजर, बामोरिया, घुर्कुन्डें, कान्ट्रा, मंडल, अकेला, प्रसाद, राही, भारती, पिथक, राउत आदि के साथ उत्तर भारत के हिमांचल एवं जम्मू कश्मीर में बारी, मालवोल, वर्मा एवं पंजाब, हरियाण, राजस्थान एवं गुजराज राज्य में बारी, रावत, खन्ना, कपूर, दास, बुजाही, सरीन, सिसोदिया, दया, आर्य, तंवर, पोकले, तम्बोली, सिनकर, कोल्हे, धवई आदि के साथ महाराष्ट्र में बारी समाज के लोग बारी, वर्मा, सातपुते, दातीर, रंधे, राउत, येउल, हागे, गोन्नाडे, धूरकण्डे , पालकडे, तक्बोली, सूर्यवंशी, चैरसिया, महाजन, पवार, चैधरी आदि के साथ बहुत से अन्य उपनाम (सरनेम) आदि लगाकर रहते है जिस कारण बारी समाज के लोग अपने आस पास के लोगों को एक दूसरे को पहचाने नहीं पाते है। आज इस बदलते आधुनिक एवं सोशल मीडिया के युग में बारी समाज के लोगों ने अपने नाम के साथ बारी लिखने एवं बोलने का कार्य प्रारम्भ कर दिया है यह बदलाव निश्चय ही समाज को एक अलग पहचान दिलाने वाला है।

लेख द्वारा
इं0 अशोक सिंह बारी
मो0-7897952721

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आल इंडिया बारी सेवक संघ

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